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Sunday 26 April 2020

वाॅरियरों सैयोग



सृष्ठि कु चक्र फिरीं फिरीं की
फेर अपणु जागा पे ही आन्दू,
कुछ बी करा मनख्यो जतन
वा   अपणा पर  ही  लान्दू।

यत्गा खाब कताड़ी मन्खिल
सुखों कु एक गफा करे जौंऊँ,
विधातऽन इनि रंचना रचै कि
सुख दुःख कु गफा बणिग्योंऊँ।

प्रकृति प्रवृति पर अज्यों तक
बरमां कु बस भी नि ह्वाई,
फेर किलै तु भ्रम मा मनखी
इतगा पूर दौडी चलि आयी।

घुंडू मा बैठग्यों विकास भैजी
विज्ञान ददा बी सोच पड़यूं,
कन क्वै लगलु पार यु बैरी
बुद्धी बल बौडा मन्त्रणा कनु।

पर ! निराश नि हौंदू कर्म कब्बी
येन जुग बटिन या धर्ती समाळी,
कर्म ही सार्थक होन्दन आखिर
कर्मऽन ही यख जीवन कमायी। 

जब उज्याड़ अफूं उज्याड़्या मा आंणू
द्याखा समै कु चरखा उल्टा चलणु 
जब सिकार अफूं सिकारी मा जाणूं
तब स्वाचा विधाता अपणु लाठु घमाणु।

अजक्याल इनि समै लग्यूं दगड़या 
कर्म तैं सजग ह्वे हिटणूं पड़लो,
अपणा गिचा म्वाळा-मास्क लगै
सब्यों जीवने लडै जितणें पड़लो।

खून मा छायी कर्मों की सुचिता
येतैं रल्यौ मल्यौ मा भूलीग्यां छै,
हाथ धूण अर तन मन की सफै
या त हमारा जीवन कु हिस्सा छै।

सुदि मुदि कु जै तै फर चिपकणु
बिगैर सुचि ह्वे अशुद्ध मणदा छाँ, 
बिन चूला चैका सनिटाईजर करि
कभी  खाणु  बी नि बणादा छाँ।

नाक मुख बूजणों कर्म अज्क्याल
धाद घौर घौर रैबार पठ्याणु छ,
म्वाळू-मास्क लगै धैरा दगड़यो
संकट समै की मांग बताणु छ। 

आज विधाता न याद दिलौ करि
फिर वे जीवन पद्धति अपनाणु कु,
प्रकृति अन्यों की अति करिग्ये छै
यु झटका छ हमू तैं बिंगाणु कु ।

हर्ता कर्ता यू प्रकृति ही छिन
पालण संहारण सब येका हाथ,
अपणु निसाब ये तैं खूब आंदू
माणिल्या अज्यों बी ये की बात। 

लौकडौन से पर्यावरण चमकणु 
धर्ती नये ध्वये की सजणी छ,
गंगाजी बी निर्मल धवल ह्वेकी
देखा कल कल कैरी बगणी छ।

देखा जीव जमाण भैर पुन ऐ की
अपणु अस्तित्व फिर ख्वजणा छाँ,
मनख्यूं का अलौ सब खुस यख
सब खिलपत ह्वेकी हंसणा छाँ।

आवा हाथ बड़वा ये यज्ञ मा
कर्मो की आहुति सब्यूं की छ,
हब्य बण्यां जु ये संकट का
तौं वाॅरियरों सैयोग जरुरी छ।

खाब कताड़ी - मुंह खोला
पूर - उपर
रचना - बलबीर राणा अडिग

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