हाथ खोलो सिपाहियों के या तैनाती को बंद करो
गद्दारों की बेशर्मी पर यूँ न इस वर्दी को शर्मिन्द करो
छाती ठोकना बन्द करो अब कश्मीर के हालातों पर
पत्थर नहीं ये चपत लग रही लोकतंत्र के गालों पर
कठपुतली बन गये हम तुम शकुनियों की चालों से
हीन हो रही कर्तव्यपर्याणता जयचंदों की बोलों से
सीमा पार की चिंता छोड़ो उनसे हम निपट लेंगे
नापाक कदम जो बढ़ेगा इधर वहीं उसे तोड़ देंगे
तुम निपटते रहो अपने तिकड़ी धूत के पांसों से
लेकिन हमें न लज्जित करवाओ रोने वाले सियारों से
रोज तिरंगा जल रहा है अभिशाप बनी इस धरती पर
मुठ्ठी भिंची ही भिंची रह जाती गद्दोरों की करतूतों पर
अब दूध पिलाना बंध करों इन आस्तीन के सांपों को
370 की कटोरी से पी कर ये ढंस रहे हैं अपनो को
असहाय पड़ी बंदूक, अपनी बेचारी पर लज्जित है
जिस बंदूक की आग पर तुम्हारी कुर्सी सज्जित है
कहाँ जाते मानवाधिकार वालो जब पत्थर हम बरसते हैं
दुम दबाकर कहाँ बैठ जाते जो मंच चौपालों से गरजते हैं
किसी के सत्ता के मोह ने ये आजीवन का यह रोग दिया
किसी के कुर्सी के चक्करों ने अधूरा हमको छोड़ दिया
सीना तान के रहने वाले, पीठ पीछे वार से हैरान हैं
स्वच्छ बर्दी पे दाग लगाने वालों से परेशान हैं।
रचनाकार :- बलबीर राणा 'अडिग' उत्तराखंडी
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