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Tuesday 27 February 2024

मातृभासै मिरतु

ब्वे-बुबाल अपणा

गिचा भितर ही 
स्या गैंडा-किल्वाड़ा
इलै बाँधी कि 
कखि दुन्याँ
हमारा नौन्यालौं
तैं पिछड़ा,
अनपढ़ ना ब्वलो।

उच्ची नाका खातिर
हो या
नोन्यालौं भली
रुवटी स्वेणा 
पर! वूं न 
चुप्प घ्वौट मारी
दाँतकट्टी लगे छौ
कि एक बि शबद
भैर नि औण चैंद।

अर नौन्याळ
तै मातृभासै जाग्वाळ मा
बड़ा ही नि ह्वेन 
बल्कि इतगा
दूर चलिगे उढ़ी कन कि 
तौं कु अब वापिस औण
स्वेणा द्योखण लेख बि नि रयूँ ।

अरे दिदा
सु मातृभाषा
अफूँ मामिरतु नि मोरी 
वीं कि हत्या करिगे
बड़-बड़ा सैरों का बीचों-बीच 
सरे आम दौड़े कच्यै।

छवटा सैर-बजारों मा
भितरे-भीतर
गौळ चिपाड़ी ।

रयीं सयीं
अठवाड़ 
गौं ख्वालौं मा। 
 
©® बलबीर सिंह राणा 'अडिग'

मुखमुल्याज्या मा लोकसाहित्य तैं पज़ल ना होण द्या’



लोक साहित्य मर्मज्ञौं नौ अडिगै चिट्ठी

परम सम्मानीय गढ़ साहित्य का विद्वान जनों तैं बलबीर सिंह राणा ‘अडिग’ की सेवा सौंळी पैलाग। मोदय जन कि अजक्याल कुछैक कलमवीर अलाणी फलाणी की ब्वारी नौ फर इंटरनेट फर सटैर टैप मनोरंजन ल्यौखणा, वेतैं हम कै भी औनार से साहित्य नौ नि दे सकदां, उनि ग़ढ़वाली पज़ल/बनाम तुकबंदी तैं भी। यूँ तुकबंदी कैकु मनोरंजन कना होला याँ से मितैं क्वी रंज-राड़ नि पर यूँ तैं लोकविधा या लोकसाहित्य दगड़ जोड़ण पर ऐतराज छन। अर यु बात वूँ सब्बी लिख्वारों तैं बि छन जों कि रचनों मा गढ़वळी कम अर हिन्दी अंग्रेजी जादा छन।

मोदय यूँ तुकबंदी बनाम पजलों तैं पढ़ी क्वी ब्बी काव्य मर्मज्ञ ज्ञानी बतै सकदन कि कै औनार से यु लोक साहित्यै पठाली मा छापुलो छन। तुकबंदी कै बि भाषाक गीत अर काव्य मा घटौ जन ऐरणु विराजमान रौन पर तुकबंदी वास्ता जब भाषा अभाषा तरफ़ाँ बढ़द त तब सवाल उठद कि हम चुप किलै छन। तुकबंदी से क्वी ऐतराज नि हमारा तमाम असली लोक गीत, चांचड़ी, झुमैला, चौंफुला, थड़िया, खुदेड़ गीत, बाजुबंद गीत आदि सब तुकबंदियों मा छन, बिगैर तुक का छंद भी नि बणदं पर ! तुकों का वास्ता मारी मरोड़ी घुसाय्याँ अंग्रेजी हिन्दी अर हौरी भाषा शब्द कनक्वै हम अपणा साहित्य मा स्वीकार कैर सकदन ? दाळ मा काळू कुछ हद तलक चललू पर पूरी दाळ काळी नि चल सकदी।  याने अमुख भैजी हर पजल बनाम तुकबंदी मा रळौ-मळौ शब्द छन, कतिगा अभाषीय शब्द अर अतार्किक लेनों जिकर मि यख नि कन चाणू, आप लोगूं मा तौं कि किताब छन पौढ़ी सकदन। अर इंटरनेट मा त छैं यी छन। भैजी आप दिल्ली बम्बै रौणा तख आपक व्यौवारिक भाषा गढ़वली नि छ इलै मूल गढ़वली शब्दूं कु आकाळ होणु म्यैल्यौ, यीं बात आप मानो चै ना मानो सच्चे या छ। श्री नरेंद्र कठैत भैजी को बोलणू छ कि भाई आपन सच मा गढ़वली भाषा सिखण त चल जावा ठेठ गौं मा अर बैठी जावा कै दादी दगड़ बौड़ा दगड़, घसेरी दीदी भुली दगड़ आपतैं छाळा शब्द बि मिल्ला अर शुद्ध व्याकरण बि, असली लोकभाषा मातृभाषा गौं मा छन दयारादूण दिल्ली बम्बै मा ना। मातृभाषा ब्वै से जलमद अर ब्वै कु व्यकारण कब्बी गलत नि होन्दू।

मराज आप ल्याखा खूब ल्याखा आपौ अधिकार छन, पर ! आपौ बिल्कुल बि हक़ नि छन कि अपणी तुकबंदी वास्ता अपणा मर्जी शब्द जाळ बुणी मार-ताणी वेतैं लोकभाषौ मुकुट पैरावा। आप बुद्धीजन लोग चै मितैं अजाण निरजण्ड अज्ञानी बोला पर मेरा बिंगण मा सु पजल बनाम तुकबन्दी बिगैर टुकू अर जड़ को अगासमात्री जनु लगुलो छन। एक शब्द जाळ मात्र छन ।

मोदय आपीऽ बतावा यूँ खिंचड़ी तुकबंदी अर मर्जी हिन्दी व्यख्या तैं कने लोक साहित्य माणी सकदन। ग़ढ़वली छ त ग़ढ़वली रावा, रचना गढ़वळी, व्याख्या गढ़वळी तब्बी त गढ़वळी मानी जौल। यु त औ घुंड म्यार मुंड वळी बात ह्वैगी। या साहित्य वळी बात च, क्वी कॉमेडी मज़ाक नि, अजक्याळा छौरों छकना बाँद वलु गीत नि कि अग्नै साल पुष्पा छोरी ऐ जाली अर हैका साल गुलाबी सारारा। गीत बलार ह्वै सकद काव्य ना। 

आप विद्वान लोगूँ को बोलण छ कि कै बि समाज कु ऐना वेकु साहित्य होन्दू अर अटल सत छन कि साहित्य अमर होन्दन। यौक बार क्वै किताब प्रकाशित ह्वै भैर ऐ जान्दी त वा व्यक्ति विशेष ना समाज की धरोहर होन्दी, अर हम कन धरोहर अपणी पीढ़ी वास्ता छोड़ना ? अर वकालत कना हम आठवीं अनुसूची मा गढ़वली भाषा की। क्या यु खिंचड़ी ल्हीजाण हमुल तख ? कि यु छन हमारी भाषा ? यनि बेतुकी पच्छयाण छन हमारी। हम गढ़वली मुख मुखमुल्याज्या ज्यादा ह्वेज्ञा साब कि अलाण फलाण भैजी भुला बुरु नि माणी जौ। हम चट पुळब्याण मा ऐ जान्दन। अर मंच मैक माळा चक्कर मा अपणु विवेक मारदन।

मोदय स्वाचा अगर हमारा पुराणा यनु करदां त आज “वेद पुराण” संस्कृत मा ना बल्कि उर्दू फ़ारसी अंग्रेजी मिक्चर मा होंदू। अर हमारा पंडेजी गोत्राचार हिंगलिश मा करदां। पर सच्चा धर्म अर लोक का पुतर यना काम नि करदन। इलै हमरु सनातन बच्यूँ छन हिंदुत्व बच्यूँ छन, निथर “जख देखी ग़ळकी, तखी ढळकी”, वळा आज जैलीदार ट्वपली पैरी पाँच बारे नमाज पढ़णा छन या क्वी द्यौश बिद्यौश मा होला चर्च गिरजों मा मोमबत्ती पकड़ी ओ माई गौड़ कना।

मोदय ये बात तैं हल्का मा नि ल्यौण चयैंद, कि चलो यार क्वी गढ़वली ल्यौखणु त छ। ठिक छ भैजी लयौखणा त छन पर इनि भी त नि ह्वै सकद कि साहित्य का नौ फर आप अपणी भाषै कुऔनार करि द्यावा। आज द्वी साल बाद मिन या बात उन्नीस हजार फिट ऊतुंग बौर्डर मा बैठी उठायी त कुछ प्रयोजना वास्ता उठायी। अपणी भाषै भल्यारा वास्ता उठायी। मथि बटी मुंड मुन्यासी बाँधण अर बँधोण वळौं बैरी बण्यूँ सु अलग । 

मोदय ज्वा मंच पज़ल तैं पुल्बै लोकसाहित्य बतौणा ये बाता वास्ता सु बि जबाबदै छन, अर पौंणें पीठैं लिफाबा तैं ना ना करि खिसा डालणा वळा दानिस्ट भी। मोदय हम कै मुख से आठवीं अनुसूची बात कना ? क्या इना सटैर रचनों से भाषा मंत्रालय हमुतैं स्वीकृति द्यै द्यौलू ? जन कि हमारा जना लाटा होला सु मंत्रालय मा बैठयां लोग, हमुल बोली तौन माणी। सुद्दी छौकर्युल वळी बात होणी। पैसों जोर फर अपणी ट्वप्ली उठाणें बात होणी। श्री नरेन्द्र कठैत जी शब्दों मा कि भुला जब र्ग्वख्या गोर्खाली तैं आठवीं अनुसूची मा सामिल कनै पैरवी कन गयाँ त ट्रक भौरी ल्हीग्याँ अपणू साहित्य।  हमू मा अज्यौं तलक काव्य का अलौ बाकी जादा क्या छिन ? जु बि छन सु कखि धूळ खाणू, चिस्कट चटकाणा तौं किताब्यूँ पन्नौ तैं। 

आदरणीय मोदय स्वतंत्र राष्ट्र मा सब्यूँ तैं बोन बच्याणै आजादी छन, यीं अभिव्यक्ति कि आजादी थौर ल्यौखण सब्यूँ कु मौलिक अधिकार छन ये मा अंडग लगोणूं मेरु क्वी हक़ नि, मि आदरणीय लिख्वारों अर वूंका सृजन कु आदर करदो। मेरु सवाल छ कि ये तैं लोकविधा अर लोकसाहित्य से ना जोड़ा, पूरा लेख कु सार इतिगा छ। ये मकड़जाळ तैं गढ़गीतिका नौ ना दिए जावो। डॉ. बेनीराम अन्थवाळ जीऽन हमारा लोक मा बिराज्याँ आणा पखांणौं संगरै प्रकाशित करियूँ अर दगड़ मा वूं कु तार्किक अर्थ भी दियूँ कि ये पखाण मा कति गैरे छन अर ये कि प्रसांगिकता कखमु छन। पर ! फलाण भैजी त कखै लंका कख लगाणा छन। याँ से एक किस्सा याद आणू द्वी चार साल पैली कै भैल गढ़वाळ का कै जगा का एक सिद्दा लाटा टैपा नोनै पाड़ा पढ़णें बिडियो डाली। सु नोनू भौत तेज अर बिगैर रुक्यूं छौ पाड़ा पढ़णु फर बिचारु कै बि पाड़ै दाही पर नि पौंछणू छौ। दो एकम दो, दो दूनी चार, दो तियां बारा, दो नमे पन्द्रा दो छकै आठ अर फेर घुमी घुमी वखी जख बटे सुरुवात करि। मतलब भंगर्या बाखरै जन रिंगा-रिटोळी। ऐरां ! लोग त हैंसदन पर सचै छन कि “अपणा लाटै हैंसी अर बिराणा लाटै रुवै”। अपणी रचना सब्यूँ तैं ज्यान से प्यारी होन्दी। पर सच्चै त सच्चै छ कि क्या मि ठिक रचणूं ? ये कु समाज मा क्या प्रभौ होलू ? 

मोदय लोकसहित्य मा यनु मज़ाक देखी आज हमारा पितर साहित्यकार मथि बटि शर्म कना  होला कि क्या इतिगा वास्ता हमुल अपणी मातृभाषै जोत जगायी। भैजी अपणी रचनों तैं राम राज्य द्वापर जुग से जोड़ा या अपौरुषीय वेदों से, यु आपक मन मंतव्य छन। जबार तलक लोक का लोग कै भी गीत-बात, काव्य, कला आदि तैं लोक नि बोलदन तबार तक सु लोक सबंध नि छ। यु बात तनी छन जु अजक्याला रैप गाण वळा अपणा आप अपणा मुंड लोक गायक की मुन्यासी धना। अपणा गिचा बौराण बणी लोक नि होन्दन यीं बात आप मैं से ज्यादा जाणदन।

ज्वा विद्वान लोग यूँ खिंचड़ी परयोगों तैं ठीक मानणा आप धाद जना ग़ढ़वाली भाषै मानक पत्रिका मा अपणी विवेचना द्यावा। व्याख्या करा, अर लोकसाहित्यै पठाळी मा कन अंगीकार छन समझावा। मि साल मा दस मैना बॉर्डर पर रौण वळू बिल्कुल अजाण ह्वै सकद, पर आप त साहित्यै नख सिख जणदन त जरा असैमत लोगूं तैं बि बिंगावा कि साब समै का बदलौ दगड़ अब हमारो लोक साहित्य भी खिचड़ी स्वीकार कनू। अब हम गढ़वळी ना हिंग्राढ़वळी छन।

मोदय कतिगा लोग मितै नवाचारौ वरोधी बोलला अर बुना छन, बेसक बोला जी। जै परकार से अजक्याल ”लिव इन रिलेशनशिप“ व्यभिचार तैं कानूनल किलै ना मान्यता द्येयाल हो पर येतैं एक सभ्य सनातनी परिवार कब्बी स्वीकार नि करदू उनि मि भी अपणी मातृभाषा ग़ढ़वळी साहित्य परिपेक्ष्य मा पज़ल बनाम बेतुकी तुकबंदी तैं नि स्वीकरदू।

आदरणीय गढ़लोक साहित्या का विद्वान गुरुजनों आपसे हथ जुडै छन कि मुखमुल्याज्या छवड़ण पड़लो अर इना खिचड़ी रचनों तैं लोक साहित्य से अलैद रखण पड़ल। यीं विषय फर राष्ट्र सेवा बाद कखि भी मि भैष कनु त्यार छौं।

आखिर मा मोदय जै परकार से मि अपणा कर्म का बाटा यीं उतुंग सीमा पर राष्ट्र इफाजता वास्ता संजीदगी से अडिग छौं उनि सामाजिक चैतणा वास्ता अपणी मातृभाषा अर लोकसाहित्य का वास्ता भी। आप सब्बि लोग सकुटुंबदरी सुखी रयान राजन बाजन रयान। 


छवटी सि कटाक


अलाण-फलाण भलि तुकबंदी कना छन,

जख मर्जी, जख-तखा शब्द घुसौंणा छन, 

बणोंणा अपणा मर्जी अपणा स्वादै खिंचड़ी

अफूँ औतना अफूँ पूजणा छन। 


ग़ढ़वळी साहित्या नै निर्माता बण्याँ छन 

अपणा मुंड अफूँ ताज़ सजोणा छन 

पज़ला नौ मातृभाषा तैं पजल बणें 

अपणी मनगणत व्याख्या चिपकोंणा छन। 


रुप्यौं जोर छन किताब्यूँ ब्यौ रचै द्या 

नामी गिरामियों तैं न्यूतौ निवतौ द्ये द्या  

पढ़ाकू पवांण सम्मान भी द्योणा बल   

झलसौ उर्यावा अर मंच मैक द्ये द्या।


हम सब्बी अपणा पटबाड़ों मा चुप छन, बात विचार नि 

मातृभाषै कणाट फर क्वी क्वाँ नि क्वीं नि

दोषी छन मुंडी मुन्यासी बाँधण बँधाण वळा भी 

पराळ कुच्याण वलौं राम नि घनश्याम नि ।


मातृभाषाक विद्वान गुरुजनों ध्यान द्यावा लो

बेऔनार होणी लोकसाहित्य तैं बचावा लो 

गढ़साहित्यै भल्यार नि होण वळी इनमा

फलाणौं दगड़ मुखमुल्याज्या छवाड़ा लो।


बलबीर सिहं राणा 'अडिग'