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Friday 30 March 2018

गजल "जलम भुमि"



जन्म लिनी जे थोल, जख बाळापन बितेन
जे माटा पल्यां पोस्यां छकी घुड़मुंडी खैंन।

रुंड-मुंड देह बणाण वळी हव-पाणी त्वे सेवा
डाला-बोटी, गाड़-गदनों फाळ मारण सिखैन।

स्वाणी प्रकृति को भरिं कुठार ज्ञान को भंडार
तेरी जोतsन यूं आंख्यों तेँ दुन्यें माया दिखेंन।

पैली किल्क्वरी फर जे अवाज मा दुलार सुणि
जे बोली भाषा मा अपणोंक भिज्यां लाड़ पैन।

धन-धन त्वे जलम भूमि, धन-धन हमारू जोग
तेरु दूधो कर्ज आजतालक क्वी उतैर नि सकेन।

ब्वे की कोळी छै वा वसुधा, बुबा को आशीष छ
याद रख्यां ते जलम भुमि से कबि मुख न लुकेन।

जख रैला भुलो जरूर भिटवली कर्या बिसर्या ना
खुद लगीं रेन्द ते धर्ती, वा तुमारी जग्वाल मा रेन्द।

रचना: बलबीर राणा "अडिग"

Sunday 11 March 2018

चिठ्ठी



घोर बटिन औंदी छै जब वा चिट्ठी
कुछ होंदी छै खट्टी कुछ होंदी मिठ्ठी
रुवांसी आंखरों मा दिखेंदु ब्वै कु दुलार
बाबा भ्यजदू छै सब्यूँ की ख़बरसार।

आंदी छै भुली की फर्मेश,भैजी की सल्ला
परदेश मा ना करि भुला कै दगड़ हो हल्ला
होन्दू छै काकी-बोड़ीयों कु मयालु आसिरवाद
नखर्याळी बोजियों की माया-मसखरी बात।

यार-आबतों की कुशल मिल्दि, गों ख़्वालों कु रंत-रैबार
बांचि जांदी छै वा चिठ्ठी, सब्यूँ का समणि बार-बार
लैंदी भैंसी की छविं लगांदी, लतेड़ गौड़ी की बात
खूब हंसान्दी छै ये परदेश मा, वे उज्याड़ा बल्दे कर्मात।

रिंगाले कलम से लिख्यां वों आंखरों मा
भटकणु रैन्दू मन फिर तों डोखरों मा
मैनो तक रैन्दी छै माटी की सौंणी सुगंध
कागज मा बन्ध्यों रैन्दू ज्यू कु अटूट बंधन।

जति मयाळी छै वा चिठ्ठी, तति गुस्यार बी होंदी छै
रोस-खरोस माया-ममता, एकी अन्तर्देशी मा ऐ जांदी छै
जति शर्मयाळी होंदी छै चिठ्ठी, लाजवंती बी उत्गा ही छै
मान मर्यादा मा रैन्दी छै वा, कबि बेशर्म बी ह्वे जांदी छै।

लुकि-लुकि पढ़ी जांदी वा कबि, कबि पंच्याति मा ऐ जांदी छै
कबि सिराणा पर  चुप स्ये जांदी, कबि छाती पे बिणान्दी छै
कबि खुद का आँशुन भीजी जांदी, कबि खुशिक भुक्की प्ये जांदी छै
कख हरची ह्वली तू प्यारी चिठ्ठी, दयेख अब वा फोन नि उठान्दी छै।

कन याद करदी छै सब्यूँ की तु चिठ्ठी, अब कन यादों मा रैग्ये तु
सब्बि का ज्यू तेँ समलोणी वाळी तू, कन समलोंण्या रैग्ये तु।

@ बलबीर राणा "अडिग"

ऐरां बल हल्या


ऐरां शब्द सूणी
झिकुड़ी मा डाम लगि जांद
हल्या त ठिक च
मि होल लगान्दू
पर ! ऐरां कु क्या मतलब?
ब्वे न बोली
त्यारा बसो कुछ नि
निकाजु मणखी?
द्वी बल्दों पुच्छयडू मडकान्दू
तैकु ही ऐरां च,
मैं सोच मा पड़ीs
कि भाई हल्या ही
धरतिल फाड़ि
अन्नsल ही उगांद
अर मणखी क्या जी जबानों
पुटुग भरिन
वा कम्प्यूटर, मशीन
मोटर-गाड़ी, बंदूक
ग्वाला-बरूद कैका
चुलाणा नि पकणा देखी अज्यों तक
अर गू भी अन्न को ही देखी
लोहा-लकड कैन भी नि हगी
ज्यान जीवोंण वालू
निकजु किले
समझ से परे।
@बलबीर राणा "अडिग'