न शकल न सूरत, क्वो छिन क्वो जाण ।
घिमसाण मा न कैकि जाण न पच्छयाण ।।
हो हल्ला चिल्लोट धिर्धड़ाठ भिभड़ाट।
न रुप न स्वरुप अंधाबिमौळी बिबलाट।।
सलौ डार छ, जख जौं वखि चबट।
न दीन, ना धरम, जु मिली वीं झपट।।
आगे लपाक, कैन सुलिगैन क्वो जाण।
घिमसाण नि कर्दी सच्चे झूटे पच्छयाण।।
हरा भरा बोण जलै दिन्द घिमसाण।
कै तैं नि बक्सिन या निर्भगी बंणाग।।
काला बादळ छंटिन घिमसाण हटिन।
फुक्याँ कुड़ियों बटिन कंराट मचिन।।
चैं दिशों भैऽकाम दुन्यां ह्वेगिन जाम ।
करुना काल मा नि रुकणी घिमसाण।।
घिमसाण बणण देखि ज्यून्दा मसाण।
जब यकठठा ह्वे जान्द आदिमे घाण।
मुश्किल छ पर असंभौ नि ये से बचण।
जरुरत छ घिमसाणो चरितर दयखण ।।
घिमसाण दयेखी मन उलार मारुन जब।
स्वोच विचार करि ठौ धैरी लियाँ तब ।।
@ बलबीर सिंह राणा 'अड़िग'
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