Search This Blog

Tuesday 24 November 2015

अब चिंतन नी

चिंता अर चिंतन
कबेर तलक रेलू खाळी मंथन
अब मंथन कु बगत नि
चट करा कुछ जतन।

सुख छै: त रगर्याट किले
बिन तीसक् टपट्याट किले
जै पाड़े असन-आतुरिल
उन्द भाज्यां तुम
शैरों बटिन ते फर
चिंता अर चिंतन किले।

हिम्मत छ त आवा दों
बारामासी जुद्ध जुटयूं
तुम भी बोलां बिटवा दों
दुःख बिपदा को आतंक मच्युं
सुख की बंदूक लावा दों।

द्वी दिनी मेहमान किले
पिकनिक तक ही पहाड़े सैर किले
अगर पलायन समझदां छां तुम त
घर की कुड़ी फर जाळा किले।

@ बलबीर राणा 'अडिग'
बैरासकुण्ड चमोली

Friday 6 November 2015

कूsड़ी उमाळ

कैकि मि स्वाणी हवेली छै
कैखुणि मि झोव्पडि बणगे
मयाली सुहागिण रै मि कैकि
कैखुणि मि  डंसिलि रांड बणगे
भग्यान लेन्दी-रुमाळी की, पलोस करि कैन
क्वे अब, निर्भगी डंगर बोळी छोड़ीगे
हंसे-हंसे लंपसार करदू छै क्वी
क्वे अब कंठ भरी उमाळ् दे ग्ये।
जंत-जोड़ करि मैं सजे-धजे कैन
कैन गळताणी दे-दे नयीं ख्वजायी
सान समजदा छाँ क्वे अपणी बोली मैं खुणि
कैन त्वहीन समझी अब मुख लुकायी
अथा उबरा-बोंड
धिधराट-भिभडाट् मचांदा छाँ, गुरबळा... कैका
क्वे किराया-किटों मा, हिटणु कु सगोर सिखाणा छायी
क्वे छज्जा मा बैठी दूर तलक बाटू देखदा छां मयाली कु
कैका मोर अग्वाड़ी अब ईंटों कु जंगळ बण ग्यायी।
संकल्प लीन कैन यख करम पैटाळी
क्वी एक रात भी नि टिकी धडम,धरम छोड्याली
हिम्मत करि कैन माँ माटी समाळी
कैन हिम्मत तोड़ी अब बोग धर्याली।
प्रकृति अर परिवर्तन क्या होन्दु
खूब समजदू छौं मैं भी
भैरक चकम की भीतरी पीड़ा
खूब बिंगदु छौं मैं भी
ये का खातिर युगों कु इतियास 
मेरा खुट्टा थौर धर्याँ छिन्
ब्वे छोड़ी भौतिक विकास करी जोन
वु भीड़क बीच भरमाणा छिन्
इनि भी नि????
सब् स्याल बणि उड़्यार बटिन,
लुक-लूकी के द्यखणा
क्वे मथि-मुलि, सब तरां ऐ जे
मुल्ककी पैरादारी करणा 
तीज-त्यौहार, सुख-दुःख मा
क्वी मेरा धोर ऐ जांदा 
क्वी पल्ले कि रुवे देखी के 
टेमक टमट्याट बते जांदा।
ब्वे दूधs की लाज ताक धरीं
मातृ भाषाक तिरिस्कार होणु छिन
जड़-जमाल तें गंवार क्या समझदा
ते खातिर तुम लाट साब बण्यां छिन
सात समुदर पार मेरा नौन्याल  
प्रीत-गीत मेरा गांदा छिन  
अफ़सोस वों फर, जू यख रे किन भी
ब्रह्म संकर बण्या छिन्
ब्रह्म संकर बण्या छिन्।
कैकि मि स्वाणी हवेली छै
कैखुणि मि झोव्पडि बणगे
मयाली सुहागिण रै मि कैकि
कैखुणि मि  डंसिलि रांड बणगे।
रचना:-बलबीर राणा 'अडिग'