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Tuesday 19 September 2023

बाबा ! मि उणि वति दूर ना बिवयाँ



बाबा !

मि उणि वति दूर ना बिवयाँ

जख मितैं मिलणा खतिर 

त्वै बेचण पड़ला 

अपणा बखरा।  


जख मनखी सि जादा 

द्यबता बसदा हो

तै मुल्क ना बिवयाँ।


जख बण-बोट 

रौंत्यळी धार

बगदी गंगा-गाड़ ना हो  

तख ना करियां मेरी मांगण। 


वख त बिल्कुल भी ना

जख सड़क्यौं मा 

मन सि जादा 

भाजदा हो गाड़ियां मोटर-कार। 


वीं घौर ना जोड़यां मेरु रिस्ता 

जै घौर मु ना हो 

खिलपत खौळ  

जै द्येळी कि रात नि ब्यान्दी हो

कुखड़ क बागन 

अर ! 

जै कूड़ी बटे नि दिखेन्दू हो  

ब्याखुनी अछलेन्दू 

पिंगळू स्वीली घाम। 


ना ढूंन्या यनु जवैं 

ज्वा डूबियूँ रौन्दो हो दौरु मास मा 

ज्वा निकज्जू 

असंगळया-आदळी हो 

ज्वा रुप कु रसिया 

गात कु खसिया हो।


जवैं 

क्वी थकुलो ल्वट्या नि कि 

जबारी चै बदली ल्योलु

भल बुरु होण फर।


यनु बर नि बर्रय्यां 

ज्वा छवटी सि छुवीं फर कैर द्यों

माँ-बैंणी, लठ्ठ-लात 

यनु बिछनट्या गुस्यार ना हो 

ज्वा चम्म निकळदू हो

थमाळी, कुल्याड़ी तलवार

अर बणैं द्यौ 

अचाणचक मवसी तैं 

बंगाल, असाम, कश्मीर

कैर द्यौ माभारत।


मेरु हाथ इना हाथों मा ना दियां 

जैका हाथन ना रोपी हो एक डाळी

जौं हाथन नि पकड़ी हो हौळै मुठ्ठी 

नि उगैन हो फसल-पात।

  

जैन नि देनी हो 

हाथ कै उणि गौळा तराणू 

जैन नि लगायी हो 

मौ-मदद तैं कखि कांधा-नौर। 


अर ! हौर त हौर 

ज्वा हाथ नि ल्यखण जण्दा हो 

‘ह’ सि हाथ

वे मा ना दियां मेरु हाथ। 


बाबा !

मितैं बिवाण हो त वख बिवयाँ  

जख सुबेर बटे ब्याखुनी तलक

मि देखी साको अपणु मैत कु मुलुक।

अर ! 

कब्बी मि दुख विपदा मा 

रुणी हो वली छाला 

तऽ ! तुम पली छाला बटे

नयेन्दा सूणी साको  

मेरु कणाट-रुणाट। 


जख बटे 

मि भेजी साकूँ तुमुतैं 

अपणी असल-कुसल कु रैबार

अरसा अर रुटणा बणें। 


बगदा बसग्याळ 

भेजी साकूँ

कखड़ी-मुगरी चिचिंडा-ग्वदड़ी कु साग।

पैटे साकूँ, ह्यूँद हिवाँळ 

तुमड़ा लौंकी करैलौं कु सुगसौ 

भुल्ला भुल्लियूँ का वास्ता। 


इना मुल्क बिवयाँ मितैं

जख मिली जावो क्वी अपणों

ख्यळा-म्यळा बजार मा औंदो-जांदो 

अर सु बतै साको मितैं 

मेरी ब्वै कु रैबार

मैत मुल्का हाल-समचार

धौळी गौड़ी कि ब्याणें खबरसार।


वीं मुल्क बिवयाँ मितैं

जख भगवान कम मनखी 

जादा रौंदा हो 

बाग अर बखरा 

योक तल्लौ पाणी पीन्दा हो।


वीं दगड़ बिवयाँ

ज्वा चखुला बणि 

अपणी चखुली दगड़  

रै साको हर बगत।


ज्वा बांटी साको 

बण-बूट डोखरा-पुंगडों बटे 

रात दिसाण तलक 

मैं दगड़ सुख-दुख। 


यनु वर चुन्याँ 

ज्वा बजान्दो हो 

मन-मौण्यां बांसुरीं


ज्वा द्ये 

साको बार-त्यौवारों मा 

द्यबतौं तैं अग्याळ 

बजै साको 

ढवोल दमों मा धुयाँळ 

नचै-ख्यलै साको

अपणा द्यौ-द्बता 

रीती-रिवाज।

 

ज्वा ल्यै साको 

मेरा धौंपेली उणि 

पाखौं बटे सिल्पोड़ी का फुन्ना। 


जै का गौळा उन्द 

गफ्फा ना जावो

मेरा भूक्खा रौण फर

बाबा !!.......

वीं दगड़ बिवयाँ मितैं। 

 

 कविता : निर्मला पुतुल

अनुवाद : बलबीर राणा 'अडिग' 


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