हथगुळयों का रयखड़ा, रयखड़ा नि छन
बैखाता छन या घौ का, यूँ तैं ना पढ़ा
ज्यू बे उठणु धुआँ तैं धुँवा ना ब्वला
औडाळू छिन पीड़ा को, यूँ तैं ना पढ़ा।
ज्वा मुळ-मुळकिन वा त, स्वेणा औंणा लग्याँ
खिलपत ह्वे हैंसी त, दिन बि स्वाणा लग्याँ
जब वीं की नजर न छुवेनी मितें
म्यारा आँख्यूँ का औंसू सुखणा लग्याँ।
अब ना औंसू, ना स्वेणा, ना क्वी चर्कबर्क
या ख्वखळा सीपियाँ छिन, यूँ तैं ना पढ़ा।
माछा छैं छाँ पर, जाळ डाळी नि मिन
गारा-मूरा धर्यां छै, पर चुटाई नि मिन
त्वेतैं वाड़ु भलु लगिन लठ्याळी इलै
खुट्टा चदरी बे भैर निकाळी नि मिन।
क्वारा पन्ना छन त क्या ह्वे चुट्ये द्या
या अल्येखी चिठ्ठयाँ छिन, यूँ तैं ना पढ़ा।
हथगुळी जिंदगी भर, दिखाणु रयूँ
निरासा मा आसा बधाणु रयूँ
जब बे देखी तेरी माया फूलों दगड़
मि छज्जों मा गमला सजाणु रयूँ।
चुभणा छाँ ज्वा चस्स त्वै, वा कांडा नि छिन
स्या म्येरी अंगुळयाँ छिन, यूँ तैं ना पढ़ा।
मन मत्याळु ह्वेनी त घबड़ाण लग्याँ
भूख इतिगा ह्वेनी कि घाम खाण लग्याँ
जिंदगी भर कांडों मा भटकणा रयाँ
बुढेन्दा नीतियूँ घौर आण लग्यां
अब पहाड़ों तैं भलि कैरि याद कैरा
ज्वा गल्त गिनतियां छिन वूं तैं ना पढ़ा।
मेरे प्रेरक गीतकार विष्णु सक्सेना जी का गीत “हाथ
की ये लकीरें, लकीरें नहीं” का गढ़वळी अनुवाद
अनुवाद
: बलबीर सिंह राणा ‘अडिग’
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